एनसीईआरटी कक्षा 12 जीव विज्ञान अध्याय 2 – पुष्पी पादपों में लैंगिक जनन | Class 12 Biology Chapter 2 in Hindi | Class 12 Biology Chapter 2 Up Board – भाग 1

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पुष्प की संरचना –

पादप जाति में आवृत्तबीजी पौधे विशिष्ट होते हैं । इन पौधों पर पुष्प लगते हैं, निषेचन के पश्चात् अण्डाशय फल में बीजाण्ड बीज में तथा बदल जाता है। इन पौधों के जीवन इतिहास में एक अत्यन्त विकसित वीजाणुमिद् अवस्था तथा एक बहुत कम विकसित युग्मको‌भिद अवस्था मिलती है । ये दोनों पीड़ी जीवन चक्र में एक- दूसरे के बाद आती रहती हैं। इसे पीढ़ी एकान्तरण कहते हैं । बीजाणुद्भिद एक द्विगुणित (24) अवस्था होती है जबकि युग्मकोदमिद् एक अगुणित अवस्था होती है ।

पुष्प की संरचना
पुष्प की संरचना

* एक पूर्ण पुष्प में मुख्य रूप से निम्नलिखित चार चक्र पाए जाते हैं।
1. वाह्यदलपुंज – : यह प्रथम चक्र है, जो अनेक बाह्यदलों से मिलकर बना होता है।
2. दलपुंज – : यह दूसरा चक्र हैं, जो अनेक दलों से मिलकर बना होता है।
3. पुमंग – : यह तीसरा चक्र है। यह नर जननांग है। प्रत्येक पुमंग को पुकेसर कहते हैं।
4. जायांग – : यह चौथा चक्र है, यह मादा जननांग है इस चक्र में एक या एक से अधिक अण्डप या स्त्रीकेसर होते हैं।
* वाह्यदलपुंज व दलपुंज को सहायक चक्र कहते हैं क्योंकि ये जनन क्रिया में भाग नहीं लेते हैं। पुमंग व जायांग को को आवश्यक चक्र कहते हैं क्योंकि ये प्रत्यक्ष रूप से जनन क्रिया में भाग लेते हैं।

पुष्पी पौधों में लैंगिक जनन –

पुष्प के अन्दर नर जननांग के रूप में पुकेसर एवं मादा जननांग के रूप में जायांग पाया जाता है । पुकेसर एवं जायांग के अन्दर अर्ध्यसुत्री विभाजन द्वारा क्रमशः परागकणों एवं महाबीजाणु का निर्माण होता है। परागकण से नर युग्मकोदभिद एवं महाबीजाणु से मादा युग्मकोभीद का निर्माण होता है। नर युग्मकोदमिद से नर युग्मक बनता है तथा मादा युग्मकोदभिद में अण्डकोशिका बनती है। नर युग्मक एवं अंड के संयुग्मन से युग्मनज बनता है। निषेचन के पश्चात युग्मनज युक्त बीजाण्ड को बीज कहते हैं जिसके अकुंरण से नए बीजाणुमिद् का निर्माण होता है | 

लघुबीजाणुजनन या पुंबीजाणुजनन –

परागकोष तथा परागकणों के निर्माण की प्रक्रिया को लघुबीजाणुजनन कहते हैं। परागकोष एक समान विभज्योतकी कोशिकाओं से बना एक अण्डाकार समूह है जो वाह्य स्तर द्वारा घिरा होता है, जो धीरे-2 विकास करके चार पालियों वाला हो जाता है, यह बाद में संवहन बंडल का निर्माण करता है।
परागधानी विकास के समय तरुण परागकोष के प्रत्येक पालि में कोने पर वाह्यस्तर के नीचे कुछ अधः स्तरीय कोशिकाएँ आकार में बड़ी हो जाती है, इन्हें प्रप्तसु कोशिकाएं कहते हैं, जिनसे एक बाह्य प्राथमिक भित्तीय कोशिका तथा भीतरी प्राथमिक पुंबीजाणुजनन कोशिका बनाती है। ये दोनों कोशिकाएँ निरन्तर विभाजित होती रहती है | प्राथमिक भित्तीय कोशिकाएं तीन से पाँच भित्ति स्तर बनाती है। इनमें वाह्य त्वचा के नीचे वाली एक परत प्रायः मोटी हो जाती है। इस परत को अन्तः स्तर कहते हैं। जिन स्थानों पर अन्तः स्तर की कोशिकाओं की भित्ति पतली रह जाती है, रंध्रक कहलाता है । अन्तः स्तर से नीचे वाली एक से तीन परत की कोशिकाएं मध्यस्तर तथा सबसे नीचे वाली परत टेपीटम बनाती हैं। टेपीटम को कोशिकाएं अर्द्धसूत्रि विभाजन द्वारा बहुगुणित हो जाती है तथा बाद में नष्ट होकर लघुबिजाणुओं के पोषण में सहायता देती हैं।
प्राथमिक पुंबीजाणुजनन कोशिकाओं से अनेक लघुबीजाणु मात्र कोशिकाओं का निर्माण होता है इनमें से कुछ नष्ट हो जाती है तथा कुछ गोलाकार होकर क्रियात्मक लघु बीजाणु मात्र कोशिका की तरह कार्य करती हैं, जो अर्द्धसूत्री विभाजन द्वारा विभाजित होकर चार अगुणित लघुबीजाणु बनाती हैं।

लघुबीजाणुजनन या पुंबीजाणुजनन
लघुबीजाणुजनन या पुंबीजाणुजनन
लघुबीजाणु एवं परागकण – 

परागकण अगुणित होता है यह दो आवरणों से ढका होता है। वाह्य आवरण कठोर एवं खुरदरा होता है जिसे वाह्य चोल कहते हैं | इसका जैविक अपघटन नहीं होता है इसी कारण परागकण लम्बे समय तक अवशेष के रूप में बचा रह सकता है | इनमें जनन छिद्र होते हैं, जिनके द्वारा परागनली निकलती है। वाह्यचोल के नीचे पतली व कोमल अन्तः चोल होती है। यह पेक्टोसेलुलोज की बनी होती है।

लघुबीजाणु एवं परागकण
लघुबीजाणु एवं परागकण

परागकोष का स्फुटन एवं नए युग्मकोमिद का विकास – :

परागकोष का स्फुटन –

परागकोष के स्फुटन के समय मध्य स्तर व टेपीटम स्तर नष्ट हो जाती है | केवल त्वचा अन्तः त्वचा रह जाती है। स्फुटन के समय अन्तःत्वचा की कोशिकाएं सिकुड़ जाती है जिससे वाह्यत्वचा पर तनाव उत्पन्न होता है | जिस कारण परागकोष स्टोमियम वाले स्थानों से फट जाती है तथा दोनों परागधानियों में स्थित परागकण बाहर आने लगते हैं । इसे ही परागकोष का स्फुटन कहते हैं।

नर युग्मको‌मिद का विकास –

परागकोष से स्वतन्त्र होने से पूर्व ही परागकणों का अंकुरण हो जाता है | इस क्रिया में सर्वप्रथम परागकण का केन्द्रक समसूत्री विभाजन द्वारा एक छोटा तथा एक बड़ा दो केन्द्रकों में विभाजित हो जाता है, बड़े केन्द्रक को वर्धी केन्द्रक तथा छोटे केन्द्रक को जनन केन्द्रक कहते हैं | परागकणों का आगे का विकास मादा पुष्प के स्त्रीकेसर के वर्तिकाग्र पर होता है, परागण द्वारा परागकण स्त्रीकेसर के वर्तिकाग्र पर पहुंच जाते हैं जहां इनका अकुरण होता है, जिसे परागण के पश्चात् परिवर्धन कहते हैं।

जायांग –

अण्डप –

प्रत्येक अंडप ने तीन भाग होते हैं
1- अंडासय
2- वर्तिका
3 – वर्तिकाग्र
अण्डप का निचला भाग अण्डाशय कहलाता है इसके अन्दर बीजाण्ड पाया जाता है । अण्डप के ऊपर एक पुतली नली के समान रचना वर्तिका होती है तथा वर्तिका के ऊपर घुण्डी के समान रचना वर्तिकाग्र होती है । अण्डप पुष्प का मादा जननांग हैं। निषेचन के पश्चात् अण्डाशय फल में परिवर्तित हो जाता हैं तथा बीजाण्ड बीज में बदल जाता है।

बीजाण्ड की संरचना – 

प्रत्येक बीजाण्ड बीजाण्डासन एक पतले वृत्त से जुड़ा रहता है, जिसे बीजाण्डवृन्त कहते हैं। बीजाण्ड का वह स्थान जहाँ यह बीजाण्डवृत्त से जुड़ा रहता है, नाभिका कहलाता है। बीजाण्ड के अन्दर बीजाण्डकाय होता है। बीजाण्ड के बाहर का आवरण बहिः अध्यावरण तथा अन्दर का आवरण अन्तः अध्यावरण कहलाता है। बीजाण्ड में एक बीजाण्डद्वार होता है। बीजाण्डकाय का वह आधार जहाँ से आवरण निकलते हैं निभाग कहलाता है, इसके मध्य में भ्रूणकोष होता है भ्रूणकोस में तीन कोशिकाएं निभाग की ओर होती हैं, जिन्हें प्रतिमुख कोशिकाएँ कहते हैं। तथा मध्य में दो स्वतन्त्र ध्रुवीय केन्द्रक पाए जाते हैं। बीजाण्डद्वार की ओर तीन कोशिकाएँ पायी जाती हैं। इनमें मध्य में अण्डकोशिका तथा इसके इधर- उधर स्थित सहायक कोशिकाएं होती हैं तीनों कोशिकाओं को समिमलित रूप से अंड समुच्चय कहते हैं।

बीजाण्ड की संरचना
बीजाण्ड की संरचना
बीजाण्डों के प्रकार –

बीजाण्डवृन्त, निभाग तथा बीजाण्डद्वार की तुलनात्मक स्थिति के आधार पर बीजाण्ड निम्न प्रकार के होते हैं।

1. ऋजु या आर्थोट्रापस –

इसमें बीजाण्डडार निभाग तथा बीजाण्डवृंत तीनों एक ही सीधी रेखा पर स्थित होते हैं जैसे- पोलीगोनम, रुमेक्स, पाइपर, सभी अनावृत्तबीजो में ।

2. प्रतीप या एनाट्रोपस –

इसमें बीजाण्ड उल्टा होता है | इसमें सिर्फ बीजाण्डद्वार तथा निभाग ही एक सीध रेखा पर स्थित होते हैं। जैसे- टमाटर, गुड़हल, मटर आदि।

3. हेमीट्रोपस –

इसका निर्माण आर्थोट्रोपस बीजाण्ड के 90° पर मुड़ जाने के कारण होता है। उसमें बीजाण्डद्वार तथा निभाग एक सीधी क्षैतिज रेखा में स्थित होते हैं और बीजाण्डन्त वीजाणु के मध्य में एक समकोण बनाता हुआ जुड़ा रहता है। उदाहरण – रेननकुलेसो कुल के पौधों में |

4. कैम्पाइलोट्रोपस –

यह कुछ मुड़ा होता है, जिस कारण बीजांड द्वार तथा निभाग दोनों एक सीधी रेखा में नहीं होते अतः बीजाण्डद्वार बीजाण्डवृत्त के समीप आ जाते हैं। जैसे- क्रूसीफेरी (सरसों, मूली) कुल के पौधों में।

5. रेम्फीट्रोपस –

इसमें बीजाण्डकाय के साथ-साथ भ्रूणकोष में भी वक्रण आ जाता है जिससे भ्रूणकोष घोड़े की नाल के समान मुड़ जाता है, जैसे कैप्सेला में।

6. सरसीनोट्रोपस –

इसमें बीजाण्डवृत्व में अतिवृद्धि हो जाता है जिससे यह बहुत लम्बा होकर बीजाण्ड को सभी ओर से घेरे रहता है जैसे नागफनी और कैक्टेसी कुल के अन्य सदस्य ।

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